केमिकल लोचे के शिकार.....

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मंगलवार, 17 नवंबर 2009

मल्टी-नेशनल बोतल में दो लीटर गंगा!

जी हाँ! गुज़रे ज़माने में हुआ करता था, "मन चंगा तो कटोती में गंगा"। अब नए और पुराने की जद्दोजहद के दौर में, किसी तरह कोशिश कर रहा हूँ आधुनिक में पुरातन को सहेजने की। इसी क्रम में कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा स्नान के लिए गया था, उसी के कुछ संस्मरण प्रस्तुत हैं।

सच कहूँगा, भक्ति भाव कम और एडवेंचर की तलाश अधिक थी, जब गंगा स्नान का कार्यक्रम बना। बेहतरीन सड़क पर दौड़ती हुई मेरी गुल्लक (एल्टो) और उसमे बैठा मेरे पिता का परिवार (मेरा अभी तक कोई परिवार नहीं है!), रास्ते में नानी और साथ होलीं।बस फिर क्या था, मेरी माँ और उसकी माँ लग गयीं वही लेने-देने, बुराई-भलाई, बुनाई-कढाई में। जब कोटा पूरा हुआ तो अनायास ही ध्यान मेरी ओर गया। नानी बोली, "अरे असीस, कद पहराएगा धोती और कद खिलावेगा लड्डू?"

कुछ दिनों से मैं इन बातों में बड़ी रूचि लेने लगा हूँ। दरअसल जहाँ जाइये, वहीँ पर लेडीज़ लोग कौमार्य के पीछे पड़ जातीं हैं। पहले-पहल बड़ा अजीब लगता था, चिढ भी जाया करता था। अब लगता है, क्या बुरा है? "लेट देम एंज्वाय" के सिद्धांत का पालन करता हूँ! नानी की बात का जवाब देते हुए कहा, "अम्मा, मैं तो कब से कह रहा हूँ, मम्मी कराती ही नहीं मेरी शादी!" और गुल्लक में बैठे सभी यात्री हँस पड़े।

जब मुझे लेडीज़ की बातें कोलाहल लगने लगीं, तो म्युज़िक सिस्टम की आवाज़ बढ़ा दी। अभिजीत सावंत गा रहे थे:

एक शख्स रास्ते में कहीं छूट गया था,

उस हादसे के बाद ये दिल टूट गया था।

एक दिन किसी बात पर जब वो रूठ गया था,

उस हादसे के बाद ये दिल टूट गया था।

अचानक ये मखमली आवाज़ में पिरोये गए शब्द मुझे घुटन का अहसास कराने लगे और तुंरत मैंने सीडी बदल दी। अब एक बेहतर गाना सुनने को मिला:

वन टू थ्री, वन टू थ्री,

दुनिया में आना है फ्री,

दुनिया से जाना है फ्री,

देख तमाशा दुनिया का,

बिल्कुल फ्री, बिल्कुल फ्री!

और वक्त-वक्त की बात देखिये, ये बिना सर-पैर वाले बेमतलब के राजनैतिक गठजोड़ के जैसे शब्द मुझे गीता के सार का अनुभव करा गए! वैसे दुनिया को एक तमाशबीन की तरह देखा जाए तो ये मजेदार ही है। पर हम सभी अपने किरदारों असल समझ बैठते हैं। और फिर पछताते हैं! कई बार आप बहुत कुछ चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते! खैर, ये बात और है, किसी और दिन, किसी अन्य पोस्ट पर!

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हम बैराज पहुँच गए हैं, और अपेक्षा के ठीक विपरीत यहाँ बेहद भीड़ है। मानो समूचा हिंदुस्तान अपने पाप धोने आ गया हो! तमाम तरीके के वाहन, घोडे-तांगे, झोटा-बुग्गी, ट्रैक्टर-ट्राली, ट्रक, बस, जुगाड़ आदि पर लदे गाँव के गाँव जैसे हमे मुंह चिढा रहे हो, के बच्चू तुमसे पहले से यहाँ मौजूद हैं!जहाँ ग्रामीण भारत पूरे दल-बल के साथ नहान के मेले में आया है, वहीं शहरी, सभ्रांत, पढ़ा-लिखा तबका इस तरह गायब है जैसे गधे के सर से सींग! मैं और पोएम ऐसी गाड़ी से फास्ट ट्रैक के चश्मे ओढे उतरे तो विदेशी सैलानी सा महसूस किया! गहरे नारंगी रंग के छोले, लाल से तेज़ी से भूरी होती हुई जलेबियाँ, डालडा में सिकती टिक्कियाँ, और गोल-गप्पों को बराबर की टक्कर दे रहे थे नए ज़माने के बर्गर, चाऊमीन, पेस्ट्री, पेटीज! और पोएम मुझे सवालिया निगाहों से देख रही थी, मानो ताना दे रही हो, "भैय्या, आपको भी न जाने क्या-क्या नए शौक़ होते रहते हैं! इट्स सो अन्हईजीनिक!" मैं भी अटपटा तो महसूस कर रहा था लेकिन, उसे नज़रंदाज़ करने में ही मैंने अपनी भलाई समझी!

गंगा की दशा और दिशा, दोनों ही दयनीय थीं। गंदगी, पोलीथींस, पूजा सामग्री, सिलाये हुए राख के पोथे और न जाने क्या-क्या! मजबूर माँ त्रस्त थी, अपनी ही संतानों से! फिर भी सींच रही थी उनका जीवन! दरअसल ड्राइंग रूम डिस्कशन्स में ही इस भयावह समस्या का समाधान निकालने वाले हम 'सभ्य समाज' के लोगों ने एक बेहतरीन सॉल्यूशन निकाला है, "डिनायल" में रहने का! अरे, सरकार करेगी, प्रशासन करेगा! "भाई, हमने तो जाना छोड़ दिया अब, इतना गन्दा जो रहता है!" मैं कोई दूध का धुला नहीं हूँ! मैं भी दोषी हूँ गंगा का! हिंदूवादी नाराज़ न हो, मन्दिर न बनाकर और बिना वजह का उन्माद फैलाने के बजाय, अगर गंगा की सफाई का कोई अभियान चलायें तो शिरकत करने का वादा करता हूँ।

खैर, एक उपयुक्त स्थान खोज हमने नहाने का विचार बनाया। पैर में गणेशजी आ गए। हालाँकि मैं ऐसी बातों में विश्वास करता नहीं, पर बकौल नानी मुझसे पाप हो गया था! मज़े की बात ये है के किसी का पुन्य मेरे लिए पाप का सबब बना! गंगा की गोद में पहुँच कर, सब साफ़ और गंदे का अहसास जाता रहा। "निर्मल आनंद" की अनुभूति हुई! पास में स्नान करती हुई गाँव की अल्हड लड़कियों के झुंड के आकर्षण का केन्द्र बना हुआ था आप लोगों का शहरी! "ये सुनीता की, ये कमला के नाम की, ये चाची की", कह-कह कर वो सभी गोते लगा रहीं थी! मैंने भी उनकी देखा-देखी, आप सभी के नाम के गोते लगाये!

बाहर आने पर अहसास हुआ के जिस घाट पर हम नहा आए थे, दरअसल वहां मुर्दे जलाये जाते हैं! राख और रेत एक दूसरे से इस कदर लिपटे हुए थे, के अलग कर पाना मुश्किल था! मृत्यु के ख्याल भर से मन सिहर उठा। फिर निगाह गयी एक माँ अपने नए नंग-धड़ंग बच्चे को बड़े प्यार से नहला रही थी! भूत और भविष्य, विनाश और सृजन एक साथ, इतने करीब गंगा पर और भारत में ही संभव है! वैसे गंगा स्नान के बाद लोग घाट पर ही भोजन करते हैं। माँ ने भी इसी इरादे से खाना रखा था। मगर हम शहरियों को वहां खाना कुछ अजीब सा लगा! गुल्लक में बैठ कर ही भोजन किया और फिल्टर्ड पानी पिया!

वापस आते समय मैंने फिर से वही सीडी लगाई, और फिर से गाना सुना:एक शख्स रास्ते में कहीं छूट गया था,उस हादसे के बाद ये दिल टूट गया था!इस बार मुझे घुटन का अहसास नहीं हुआ! शायद गंगा मैय्या ने मुझे सिखा दिया था, "बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले"। इंसान को ज़िन्दगी में आगे बढ़ना ही पड़ता है। पर आगे बढ़ने का मतलब ये तो नहीं के हम अपना माजी भूल जायें! फिर चाहे वो गंगा का किनारा हो या एक शख्स जो रास्ते में कहीं छूट गया था! मैं अतीत को दिल में संजो के रखूंगा, न नफरत की तरह, न नासूर की तरह, न ग़म की तरह, न रंज की तरह! बल्कि एक ऐसे अहसास की तरह जो मेरे लिए कल भी ख़ास था, आज भी ख़ास है और कल भी ख़ास रहेगा।

जय गंगे मैय्या की!

27 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

bबडिया पोस्ट बधाई

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

ik shakhsh raaste me kahi choot gya tha.....khoobsurat shabdo se buni huee apki post achhi lagi...behad achhi....

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

word verification se cmnt karna mushkil lagta hai...plz hta de.....

मनोज कुमार ने कहा…

goog .

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

very nice.narayan narayan

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

सुमन जी, निर्मला जी,
धन्यवाद!
आपका आशीष मिलता रहे तो ये आशीष लिखता रहे!

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

राज,
धन्यवाद! आपका स्वागत है! ब्लॉग जगत में नया हूँ, सीख रहा हूँ! वर्ड वेरिफिकेशन हटाना सिखा दीजिये, हटा दूँगा!

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

अजय जी,
शुक्रिया! बस समझ लीजिये, मैं अपने यहाँ से निकल चुका हूँ, पहुँच ही रहा हूँ आपके पते पर :-)
मनोज जी,
धन्यवाद!
नारद मुनि,
नारायण! नारायण!

बेनामी ने कहा…

SHABBASH

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

अज्ञात, अनाम!
धन्यवाद!

प्रबल प्रताप सिंह,
खैरमकदम (मतलब स्वागत)!

बेनामी ने कहा…

Zor ka jhatka dheere se laga!
Pile on nahi karna chahti bt zyada senti ho gaya.
Yunhi fikra ko udate hue, likhte aur padhate rahiye.

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

Shilpaji,
:-)

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत बढिया , लजवाब लगी आपकी रचना ।

राकेश कौशिक ने कहा…

अच्छा लगा बहुत अच्छा. बधाई.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

achhaa vyangaatmak shaili mein likha aapka sansmaran hai ......... aise hi likhte rahen ... bahut acha laga padh kar ....

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

मिथिलेशजी, धन्यवाद!
कौशिक जी, धन्यवाद! स्वागत!
नासवा जी, आभार! ज़िन्दगी और मुहब्बत से मेरी गुत्थम-गुत्था जारी रहेगी!

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

मिश्रा जी, स्वागत!

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) ने कहा…

आशीष जी आपने ई-मेल से रचना की कड़ी भेजी हमने चाट-चूस कर रख दी, स्वादिष्ट है; इसी तरह पकाते रहिये। दूसरी बात कि RAJ जी को बोलिये कि "छूट" की स्पेलिंग सही लिखा करें भाई! आदतन जो लिखा है पढ़ गए और फिर लगा कि यार हमारी ही कुबुद्धि है।
यदि चिट्ठाकारी के बारे में कुछ शुरुआती बातें जानना चाहें तो सम्पर्क करियेगा कई प्राणी जिन्हें उंगली पकड़ कर चलना सिखाया है आजकल तेवर बदल-बदल कर ब्लाग-जगत में चल रहे हैं,खैर ये तो दुनिया का दस्तूर है इसमें क्या रोना पिपियाना :)

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

डॉ साब,
धन्यवाद! पकाता रहूँगा और परोसता रहूँगा!
राज जी को आप बोल ही चुके हैं! "यार हमारी ही कुबुद्धि है", नहीं, हमारी भी कुबुद्धि है!
मान्यवर, इस अबोध बालक को समझाएं, चिट्ठाकारी क्या होती है?

Unknown ने कहा…

sir,I read your blog.............

It is awesome. Danish

s k singh ने कहा…

malti national botal me do liter ganga apka lekh padha. tarif ke kabil hai. hamari sanskriti se khilwad karne ka adhikar kisi ko nahi hai per kya kare rajneta paise lekar kuch bhi kara sakte hai

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

किसी ने क्या खूब कहा है सिंह साब,
वो तो इनके बस में नहीं हैं बादल, वर्ना इन्ही के खेतों में बरसा करते!!!
आपको संस्मरण पसंद आया, मेरा लिखना सार्थक हुआ! धन्यवाद!

S R Bharti ने कहा…

बहुत अच्छी तथा सार्थक पहल
हार्दिक बधाई

S R Bharti ने कहा…

समय का पहिया तो चलेगा ही!
आपका रंग भी ढलेगा ही!
जवानी से चाहे कितना भी पक्का याराना है!
मत भूलिए बुढ़ापा आपको भी आना है!

S R Bharti ने कहा…

समय का पहिया तो चलेगा ही!
आपका रंग भी ढलेगा ही!
जवानी से चाहे कितना भी पक्का याराना है!
मत भूलिए बुढ़ापा आपको भी आना है!

niyati ने कहा…

dil ko chhoo liya..khaas karke aakhri do lines..
मैं अतीत को दिल में संजो के रखूंगा, न नफरत की तरह, न नासूर की तरह, न ग़म की तरह, न रंज की तरह! बल्कि एक ऐसे अहसास की तरह जो मेरे लिए कल भी ख़ास था, आज भी ख़ास है और कल भी ख़ास रहेगा।
ganga maiya paap ke saath dard bhi dho leti hai kya?

Manoj K ने कहा…

@ नियति
कभी गंगा मैया की गोद में सर रखकर देखना, सब भूल जाता है इंसान.

आशीष जी सोच रहे होंगे मेरे ब्लॉग पर यह क्रोस चैटिंग कैसे हो रही है, तो सिर्फ यहाँ यह बता दूँ की यह और हम पुराने जानकार हैं :)

फ़िलहाल आपको एक और विचारों को झंझोड़ने वाली पोस्ट लिखने के लिए बधाई.

मनोज खत्री