उस रोज़ आसमां साफ था पर सूरज कुछ मद्धिम, मलिन सा था!
थक सा गया था शायद अपनी ज़िन्दगी से वह!
हमेशा की तरह शाम होते-होते ढ़लने लगा,
पर ना जाने क्यूँ ऐसा लगता था की कुछ कहना चाहता है मुझसे वह!
मेरे कमरे में खिड़की से आती किरणों के माध्यम से,
बड़े ही व्यथित मन से बोला:
"क्यूँ लोग मुझे उतना आदर-सम्मान नहीं दे पाते, जितना वो उगने के समय करते हैं?
क्या मैं और उदय होने वाला सूर्य अलग-अलग हैं?
या उगने के पश्चात् वह जो कुछ देता है, मैं अस्त होने से पूर्व नहीं देता?"
दुखी होना उसका था ही लाज्मीं,
अहसास हुआ मुझे भी कि वह कह रहा था जो,
वास्तव में वो, वो ही तो है जीवन की सच्चाई,
एक कड़वी सच्चाई!
सुनकर बात उसकी झाँका अपनी ही ज़िन्दगी में,
ज्ञात हुआ सूरज की सच्चाई, जो जीवन की भी सच्चाई है;
वही तो है मेरी भी!
बेटे की परवरिश में भला छोड़ी कोई कसर?
एक तो बेटा, वो भी इकलौता!
पढाया-लिखाया, बनाया एक बड़ी सी एम एन सी में बड़ा सा अफसर!
कितना चाहता था वो मुझे और अपनी माँ को,
हाय! कितने प्यारे थे वो दिन!
पर जब से रिटायर हुआ हूँ और
चल बसी है अर्धांगिनी अधर में आधा छोड़ कर,
बस तभी से ना जाने क्या हो गया है?
बहू-बेटे को मेरा बोलना भी नहीं पसंद!
लेकिन अब सूरज से साक्षात्कार के पश्चात्,
समझ चूका हूँ इस तथ्य को भली-भांति,
कि मैं अब ढ़लने लगा हूँ!
अग्रसर हूँ, डूबने कि ओर!
अनायास ही दृष्टि पड़ती है क्षितिज पर,
सूर्यास्त हो चूका है,
और ऑंखें बोझिल सा महसूस कर रही हैं!
घनघोर अँधेरा सदा-सदा के लिए.....
64 टिप्पणियां:
बेटे की परवरिश में भला छोड़ी कोई कसर?
एक तो बेटा, वो भी इकलौता!
पढाया-लिखाया, बनाया एक बड़ी सी एम एन सी में बड़ा सा अफसर!
कितना चाहता था वो मुझे और अपनी माँ को,
हाय! कितने प्यारे थे वो दिन!
बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना! आपने बड़े ही शानदार रूप से मन की व्यथा को प्रस्तुत किया है जो काबिले तारीफ़ है! इस उम्दा रचना के लिए बधाई!
सचाई से साक्षात्कार
लाजवाब रचना .....सूरज और बुढ़ापे के ढलने के वक्त ......बखूभी से प्रकट किया है आपने .......जवाब नहीं आपका ....और इस रचना का ..........इस रचना के लिए आपको ढेर सारी शुभकामनयें .
अच्छी लगी ये पोस्ट अब तो ये ज़माना है की जब तक मतलब है माँ बाप के चरणों में स्वर्ग है और मतलब लिकल गया तो माँ बाप के लिए अपने घर में ही नरक है बहुत बेहतरीन प्रस्तुती.मन के भाव कितनी सहजता के साथ सामने आये है.जीवन का सत्य यही है उसे ऐसे ही स्वीकारना पड़ेगा पर ऐसा न हो इसके लिए प्रयत्न शील भी होने की जरुरत है
आभार
अच्छा लिखा है
बहुत खूब ... सूरज को माध्यम बना कर जीवन की कड़वी सच्चाई से रूबरू करा दिया आपने .... संवेदनशील रचना है ...
BAHUT SUNDER HRIDAYSPARSHI, MARMIK ABHIVYAKTI.
बहोत ग़मग़ीन रचना।
पर जब से रिटायर हुआ हूँ और
चल बसी है अर्धांगिनी अधर में आधा छोड़ कर,
बस तभी से ना जाने क्या हो गया है?
बहू-बेटे को मेरा बोलना भी नहीं पसंद!
ओह बहद भावपूर्ण रचना .....!!
युवा होते हुए इस मार्मिक विषय पर लिखना और किसी बुजुर्ग के भावों को यूँ पिरोना बहुत कठिन है .....!!
jeevan ki sachai ko surya ke madhyam se kahne ka andaaj pasand aaya.....kyun hum bhool jate hai...us suraj ko jisne ujala failakar hamare andhkaar ko door kiya...aur uske ast hone ke samay kya hum use uske rinn ke badle aadar bhi nahi de sakte.....?
dil ko choo gayi aapki rachna
nice
nayapan tha baat kehne mein
aise hi lijte rahiye
shubhkaamnayen!!
acha hai, bt concentrate more on d romantic issues, suits u more. Tc
sooryaast...is ummid kaa bhi hotaa he ki sooryoday bhi hogaa.....??? kher..bhav ki abhivyakti he aour satik baat bhi kah rahi he..,
bahut achha likhte he aap, saadhuvaad
बहुत सुन्दर कविता है ... मर्मस्पर्शी और भावनाप्रधान ... ढलता सूरज को बुढ़ापे के साथ कितनी सही ढंग से तुलना किये हैं आप !
मेरी कविता पर टिपण्णी देने के लिए शुक्रिया ! आते रहिये !
जीवन के सच को बयान करती हुई अच्छी भावपूर्ण रचना ।
पर जब से रिटायर हुआ हूँ और
चल बसी है अर्धांगिनी अधर में आधा छोड़ कर,
बस तभी से ना जाने क्या हो गया है?
बहू-बेटे को मेरा बोलना भी नहीं पसंद
yahi satya ho jata hai aksar
mann waah waah kah utha padhte hi....
bahut hi bhawnatmak rachna...
sada aise hi likhte rahein....
regards..
shaekhar
यही जीवन की सच्चाई है।
घनघोर अँधेरा ....जीवन में कभी न कभी तो आता ही है ! प्रकृति ही हमे सब कुछ देती हैऔर धीरे धीरे ले लेती है ! वही हमें सिखा देती है जीना !इसमें किसी का क्या दोष !
लेकिन अब सूरज से साक्षात्कार के पश्चात्,
समझ चूका हूँ इस तथ्य को भली-भांति,
कि मैं अब ढ़लने लगा हूँ!
अग्रसर हूँ, डूबने कि ओर!
अनायास ही दृष्टि पड़ती है क्षितिज पर,
सूर्यास्त हो चूका है,
और ऑंखें बोझिल सा महसूस कर रही हैं!
घनघोर अँधेरा सदा-सदा के लिए.....
.....जीवन के कटु सत्य को शब्दों के माध्यम से बखूबी प्रस्तुत किया है आपने..
यह आज के समय की एक बिडम्बना भी है ...
बहुत शुभकामनाएँ.....
your experiment towards truth.............great one!!!!!!!
संस्मरण शैली का अप्रतिम ब्लाग , बधाई ।
आशीष बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति है। मेरी पोस्ट पर तुम्हारी टिप्पणी पढ़ी, अच्छी लगी। बेटे तो तुम बन ही जाओंगे बस चिन्ता यही है कि क्या मैं माँ बन पाऊंगी?
आशीष जी,
एक कड़वा सच जिसके विषय में यही कह सकता हूँ कि जिसे कील चुभती है वही दर्द समझता है. किंतु एक तथ्य से अवगत कराने की धृष्टता करना चाहूँगा..बिहार में कार्तिक मास में छठ पर्व (सूर्य्यषष्ठी व्रत) मनाया जाता है, जो अपने तरह का अनोखा पर्व है… इस पर्व में अस्ताचलगामी सूर्य्य की वंदना की जाती है...
अरे वाह! मैं तो सोचती थी कि तुम एक प्यारे से छोटे से बच्चे को जीवित रखे हो खुद मे पर आश्चर्य !एक बुढाते पिता के दर्द को शब्द तोदिए तुमने,ये तो कोई व्यक्ति तभी दे सकता है,जब कुछ समय के लिए ही सही उस पात्र को खुद में जीता है .तुम जीवन के संध्या काल मे अस्ताचल को जाते 'इस्' सूरज के दर्द को 'यूँ' महसूस कर लेते हो.कम से कम तुम्हे तो कभी बुरा नही लगेगा उनका बोलना.इस् उम्र मे इतनी समझ..........जियो. बहुत सम्वेदनशील हो तुम.
जैसे तुम वैसी तुम्हारी कविता और क्या ????
Haan..yahi sachhayi hai,jo aapne kya khoob jatayi hai!
Doobte sooeraj ko kaun ardhy arpan karta hai!
mere blog par is baar..
नयी दुनिया
jaroor aayein....
प्रिय संवेदना के स्वर (सखा/ सहेली),
अव्वल तो यह के आगे से कभी कोई भी टिपण्णी देने में सकुचायें नहीं, ध्रष्टता तो बड़ा भारी लफ्ज़ है! खुल के बोलो यार, परहेज़ कैसा? मैं कभी किन्तु-परन्तु नहीं करूंगा, आप भी ना करें!
जहाँ तक छठ की बात है तो इस पर्व की रवायत और सियासत दोनों से वाकफियत रखता हूँ! बिहार और पूर्वांचल के बहुत से मित्र और छात्र रहे हैं इसलिए! खैर सूरज तो यहाँ रूपक मात्र है, असली समस्या तो बुढ़ापे में अनदेखा किये जाने की है! छठ पर अस्ताचलगामी सूर्य की वंदना भी एक अपवाद मात्र है! उसी तरह जिस तरह अज की तारीख में बच्चों का श्रवण कुमार होना!
इंदु (जो मेरी गर्लफ्रैंड है), उसके लिए:
देखा नहीं कभी गौर से तूने मुझे ऐ रफीक,
आज जब देखा है तो तू क्यूँ इतना दंग है?
कल जिसमें भीगा था मैं, वो भी मेरा एक रंग था!
आज जिसमे डूबा हूँ मैं, वो भी मेरा एक रंग है!
इंदु माँ सा के लिए:
माँ सा जब मुरलीवाला नाना प्रकार की लीलाएं रचा सकता है, चोरी कर सकता है, धर्म और नीति की बात कर सकता है, तो मैं क्यूँ नहीं? मैं करेला भी हूँ (नीम चढ़ा और नीम उतरा दोनों!), और मुक्कमल मुहब्बत के बदले अधूरी वफ़ा पाने वाला एक प्रेमी भी! मैं एक बेचैन बैचलर इन पंजाब भी हूँ जो बरसात के लिए अँखियाँ उडीके बैठा है! और मैं एक बूढा घोडा भी हूँ जो किसी काम का ना रहा! सोच की कोई उम्र होती है भला?
दरअसल, मेरी तीन उम्र हैं:
शरीर: 25 साल,
दिल: 16 साल,
दिमाग: 61 साल!
बड़ा मुश्किल होता है मैनेज करना! हा हा हा.....
पाए लागू!
मंसूर साहेब, तहे दिल से आपका इस्तकबाल करता हूँ! नाचीज़ को इज्ज़त बख्शने के लिए शुक्रिया!
शेखर वैलकम!
ऊषा जी, हृदय से स्वागत!
कविता जी, आभार!
अरुणेश जी, स्वागतम अत्र भवताम जीवनं प्रेमस्य च प्रयोगे चिठं! हा हा हा....
कोशिश करूँगा के खरा उतरूं!
मेरे नन्हे दोस्त !
ढेर सारा प्यार ,
कुछ गडबड तो है.उम्र बता कर अच्छा नही किया बालक. अब हमारी सुनो-
उम्र ?????? खूबसूरत लड़कियों की उम्र पूछते हो /जानना चाहते हो ?गुस्ताख लडके.
चलो बताय ही देते है,
उम्र -57 वर्ष (किसी को बताना मत दुष्ट )
शरीर - 35
दिल - 7-8
दिमाग-० ० ० ० ०
औसत उम्र????? तुमसे भी छोटे हैं बबुआ
न तुम्हारी तरह समझदार हैं न ग्यानी.
'दुनिया ने कितना समझाया कौन है अपना कौन पराया .......सब कुछ सिखा हमने न सीखी होशियारी ,सच है आशिश आज के जमाने मे तो हम हैं अनाडी.'
जहाँ कहीं कभी ऐसा देखने,पढ़ने,सुनने मे आया जो जीवन में खूबसूरत रंग भरते हैं हमने तो उन सब रंगों को अपने मे समेत लिया और खुद को रंग लिया .इसलिए भगवान से कोई शिकायत नही,तुम जैसा इंसान हमें अपनी दोस्त मानता है ये हमारे लिए गर्व की बात है.
हम तुम्हारी सम्वेदनशीलता को प्रणाम करते हैं ,बेटा!
लोगों में जो हमेशा जिन्दा रहनी चाहिए वो ही सम्वेदनशीलता खत्म सी हो गई है.यही कारण है हम तुम्हे अंतरात्मा से प्यार करते हैं.
तुम्हारे पापा मम्मी बहुत भाग्यशाली हैं.
aapke experiments achhe lage to dubaara dekhne chala aaya ki kuch naye prayog to nahi kiye hain aapne...
aane waale prayogon ka intzaar hai...
umeed hai kuch achha hi rasayan banega,,....
regards
shekhar
http://i555.blogspot.com/
बेहतर तरीके से शाम को उतारा है आपने....ऐसी कई शाम हमारे जीवन में आती हैं....और फिर ऐसी ही शाम जिंदगी की आती है तब भी एकाकीपन होता है....आखिर क्यों छोड़ जाता है कोई क्यों नहीं समझता कोई...
सूर्योदय के बाद सूर्यास्त तो होना ही है.जरूरत है इस सूर्यास्त को और भी खूबसूरत और यादगार बनाने की.
इस उत्कृष्ट रचना के लिए साधुवाद.
अच्छी रचना....
अनायास ही दृष्टि पड़ती है क्षितिज पर,सूर्यास्त हो चूका है,और ऑंखें बोझिल सा महसूस कर रही हैं!घनघोर अँधेरा सदा-सदा के लिए.....
bahut sunder kavita. anubhutiyoan ka khazana samet rahen hain aap...
Aur ek naya rachnatmak vishva bhi ghadh rahen hain.
अभी मौन हूँ अभी कुछ कहुगा ............
आज के ज़माने की हकीकत बयान की है आपने. बहुत ही अच्छी रचना है. बधाई स्वीकारें . आपने पुछा कि शाद क्यूँ नहीं. नाशाद बनकर ज्यादा अच्छा लिख रहा हूँ. बस इसीलिए. वैसे जब मैंने नाशाद उपनाम रखा तब मेरे सभी दोस्तों ने तुरंत इसे मंज़ूर कर दिया बस रख लिया.
बहुत बढिया लिखा है।बधाई।
Bhai Aashish thanks for comment. Aapki samvedana man ko chhoo rahi hai gudguda rahi hai
bahut sashakt rachna.
कम आयु में ब्रद्धावस्था का अनुभव ,कवि में यही तो एक विशेष गुण होता है हर क्षेत्र का अनुभव कर शब्दों की माला बनाना ||शुरू में ब्लॉग का नाम पढ़ते ही समझ लिया था कि प्यार और जीवन के अनुभव | बैचलर और बरसात भी पढ़ा |सूरज का ढलना और आदमी की आयु बढ़ना अच्छी तुलना की है ।बहुत ही सुन्दर बात कही है उगते सूरज को जल चढ़ाना ,पूजन करना ,स्तोत्र आदि का पाठ करना लेकिन डूबता सूरज ? सही है आते का बोलबाला जाते का मुह काला |जीवन की सच्चाई और कड़वी सच्चाई है बुढापा ,नए पौधों में सब पानी डालते है मगर मैंने नहीं देखा कोइ ब्रक्ष जो ठूंठ हो गया है उसमे जाकर कोइ जल चढ़ाता हो |ब्रद्ध देह ,सेवानिवृति और बुढापा ,उपेक्षा ,किसी को बक्त नहीं है हाल पूछने का | भैया बहुत ही सुन्दर रचना लगी आपकी ,प्रत्येक ब्रद्ध का अनुभव ,उसकी मजबूरी को बखूबी चित्रित किया है
Interesting Blog !
इस रचना को पहले भी पढ़ कर गयी थी...और जैसे हर पंक्ति आत्मसात करती रह गयी थी...जीवन की सच्चाई को सहज ही दर्शा दिया है इस रचना में..
अनायास ही दृष्टि पड़ती है क्षितिज पर,
सूर्यास्त हो चूका है,
और ऑंखें बोझिल सा महसूस कर रही हैं!
घनघोर अँधेरा सदा-सदा के लिए.....
कहीं कहीं सूर्यास्त की पूजा भी की जाती है..सूर्योदय की आशा में...बहुत अच्छी भावाभिव्यक्ति है
आशीष जी धन्यबाद .आपका प्रोफ़ायल
अच्छा लगा मैं कौन हूँ गीता पर
प्रयोग..आदि पर मुझे एक बात जो बेहद
बुरी लगती है वो सिर्फ़ आपकी ही नही
पंजाबी कल्चर की है वो है माँ के लिये
गर्लफ़्रेंड शब्द यूज करना ..मैं एक बार दिल्ली
में था तो मेरा एक पंजाबी परिचित अपनी
माँ के लिये डार्लिंग शब्द यूज करता था..मुझे
बङा अजीव सा लगता था..ऐसा ईसाई बगैरा
में भी देखा है हम कितने ही आधुनिक हो जायें
पर कुछ चीजें ऐसी है जो पुरानी ही अच्छी हैं
खैर कोई बात नहीं हमारे आपके संस्कारों में
अंतर हो सकता है
राजीव जी,
आपका 'कुल श्रेष्ठ' है, और मैं ठहरा दिग्भ्रमित, पथ भ्रष्ट और पाश्चात्य संस्कृति का प्रणेता!!! हा हा हा.....
पंजाबी कल्चर में ऐसा है? मैं नहीं जानता! दरअसल, आप गर्लफ्रैंड को बहुत सीमित तौर पर देख रहे हैं! यकीन मानिए, मेरी माँ मेरे लिए भगवान से बढ़कर है! लेकिन भगवान को सिर्फ पूजा जाए, ऐसा तो नहीं होता ना!?! प्रेम भी तो किया जा सकता है?
संस्कारों में अंतर नहीं है! आज भी जब माँ-पिता उपलब्ध हो तो पाँव छुए बिना मैं घर से नहीं निकलता! बस सिर्फ आदर का पात्र बना कर उन्हें खुद से दूर नहीं कर सकता!
जानते हैं ये सब मैं क्यूँ बता रहा हूँ आपको? क्यूँकी आप आदमी सच्चे हैं! जो महसूस किया लिख दिया! जारी रखिये......
रंजीत खैरमकदम!
नाशाद जी, इस हसोड़ की दुनिया में आपका स्वागत है!
ye ekdam satyahai ki ugate hue suraj ko sabhi pranaam karate hai ,dhalte suraj ko koi puchhata nahi.
suraj ke madhyam se aapne bahut hi sundar dhang se man ki vytha ko prastut kiya hai.
behatareen abhivykti.
poonam
lajabab.
bahut bahut accha laga....comparision with sun was awesome
very very niceely written.....comparision with sun was awesome
bahut khoobsurat rachna.........bahut aache bhaavo mein apne darshai haa zindagi ki sachhi
Superb, well writen! came here to leave a comment, started reading every comment..you guys are awesome..
बहुत दर्द है..आज कल जीवन की यही दुःख भरी कहानी है
जिन बछ्छो को माँ बाप सब कुछ लुटा के भी पलते है वोही उनके लिए कुछ पल प्यार के भी नहीं निकल पते ..कितना दुःख होता है ये सब देख कर..आंखे नम होगई आपकी रचना से
wah Aasheesh ji kya sunder chitr ukera hai Budhape ka aur suryast ka . Soory ke manen wyatha ho na ho hum usme aur apne jarjar Budhape men samanta dhoondh hee lete hain.
heyii ashish,well written,dint expect the end to be the way it was...and thanks for comin over to my blog,do come again, kya pata kahi se u get one more nice girl<beleive me all of them are not taken :)
sabse pahle to aap mere blog pe aaye and comment diya uske lie thanks.
aapki rachna vakai mein satya ke karib hai...par ye bhi duniya ki reet hai...
चंदर कुमार/ सोनी (मैं मान के चल रहा हूँ के आप एक ही हैं!), खैरमकदम!
ओम पुरोहित 'कागद', स्वागतम अत्र भवताम फ़ालतू दियां गलाम चिट्ठाम!
रेवा, यू आर वैलकम!
aashish u really write awesome,it is very true that world regards only the rising sun n nobody even bother to be grateful to the sunset...
I really like your efforts for the old people,the way u compare is just great..
i have read all ur posts,comments posted on ur posts
everyone is praising for ur literature.The verve in it shows u r great.
i knew it from the start.
appke liye sirf 2 batein kahunga
bahut badhiya.
maanana padega.
miss u sir.
everybody misses u.
take care of urself SINCE u r not at home.
GOD BLESS ALL
बात और बात कहने का अंदाज अच्छा लगा। वैसे छठ के दिन डूबते सूरज को भी अराधा जाता है। क्यों ने आस की जाये , वरना बुढ़ापे में विरक्ति आ जायेगी, बंधु !
पर जब से रिटायर हुआ हूँ और
चल बसी है अर्धांगिनी अधर में आधा छोड़ कर,
बस तभी से ना जाने क्या हो गया है?
बहू-बेटे को मेरा बोलना भी नहीं पसंद!
Rishton ke mul me sanvedna nahin arth pradhan ho gaya hai.
"लेकिन अब सूरज से साक्षात्कार के पश्चात्,
समझ चूका हूँ इस तथ्य को भली-भांति,
कि मैं अब ढ़लने लगा हूँ!
अग्रसर हूँ, डूबने कि ओर!
अनायास ही दृष्टि पड़ती है क्षितिज पर,
सूर्यास्त हो चूका है,
और ऑंखें बोझिल सा महसूस कर रही हैं!
घनघोर अँधेरा सदा-सदा के लिए..... "
जीवन के अंतिम सत्य की ओर जाते मन की अभिव्यक्ति..
बहुत ही शानदार
मनोज
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